Nautanki book pyar ka pyasa urf vishela amrit
अमरजीत नौटंकी कथा कहानी
में आपका स्वागत है
आज हम आपको
Amarjeet nautanki books. में एक और शानदार नौटंकी कहानी के बारे में बताएंगे
जिस का नाम है प्यार का प्यासा उर्फ विषैला अमृत आइए दोस्तों हम इस नौटंकी किताब की
कहानी को संगीत के माध्यम से विस्तार से जाने।।
Amarjeet nautanki books. में एक और शानदार नौटंकी कहानी के बारे में बताएंगे
जिस का नाम है प्यार का प्यासा उर्फ विषैला अमृत आइए दोस्तों हम इस नौटंकी किताब की
कहानी को संगीत के माध्यम से विस्तार से जाने।।
नौटंकी
संगीत
प्यार का प्यासा
उर्फ
विषैला अमृत
Nautanki Pyar ka pyasa
urf
vishela amrit.
मङ्गलाचरण
दो०- रे मन मूरख छोड़ दे, आज से करना पाप ।
पाप तुम्हारा बाप है, कर ले हरि का जाप ।।
चौ०-करले हरि का जाप इसी में सबका है कल्याण ।
व्यर्थ समय क्यों जा रहा किधर है तेरा ध्यान ।।
.गीता और रामायण पढ़ लो आ जाये तब ज्ञान।
सच्चे दिल से अगर चाह लो मिल जाये भगवान ।।
कवि
दो०- दास्तान बिजनौर की, लिखता हूँ मैं आज । इसी शहर में थे कोई, जमींदार नटराज ।।
चौ० - जमींदार नटराज राज्य में यश का नूर था फैला। इन्हीं की दो बेटी थीं यारों बिंदिया और विषैला ।। नाजी बिंदिया का रहता था हरदम ही मन मैला । किन्तु विषैला भोलेपन से लगती थी जैसे लैला ।।
कौ० - नटराज का चमचा वह पूरा नमक हराम था। दीन दुखियों को सताना ही बस उसका काम था ।। नगर के रइयत सभी डर से थे उसके काँपते । कर्म खोटा रोज करे रन्जीत उसका नाम था । ।
दौड़-नटराज बैठे जैसे ही, रन्जीत पहुँचा वैसे ही । बोला मधुरी बानी । जमींदार रइयत सभी करते हैं मनमानी ।।
( सीन बनाइये जमींदार नटराज सिंह सिंहासन पर बैठे रहते हैं, तभी उनका चमचा रन्जीत सिंह आता है। )
रन्जीत सिंह
दो०- जमींदार के सामने खड़ा हुआ रन्जीत । रइयत मनमानी करे, यह कैसी है रीत ।।
नटराज
दो०–कहना क्या तुम चाहते, हो रन्जीत गुलाम । हुक्म जो रइयत न सुने, कर दो काम तमाम ।। ब०त०- कौन है व्यक्ति जो बात माने नहीं, कौन नटराज से लेगा टक्कर भला। मेरे रन्जीत जल्दी बताओ मुझे, चलता हूँ दाब दूँगा मैं उसका गला ।।
रन्जीत
ब०त० - नाम किसका बताऊँ जमींदार जी, कर्ज देता नहीं एक किसान है। बोलता है मेरे पास पैसा नहीं, बढ़ गया बड़कुवा पूरा शैतान है ।।
नटराज
बoत० - चिन्ता करिये न रन्जीत तुम इस घड़ी, मैं अभी चल रहा मैं अभी चल रहा । आज बड़कू की आदत सुधारेंगे हम, वक्त ज्यादा नहीं शाम भी ढल रहा।। रन्जीत - ड्रामा - चलिये जमींदार साहब ! आप ही उससे बात करिये ।
( सीन बनाइये - बड़कू किसान खेत में हल जोतता रहता है तभी नटराज एवं रन्जीत खेत में पहुँच जाते हैं। नटराज क्रोधित होकर )
नटराज
ब०त० - देखकर बड़कुआ सर झुकाया नहीं, भूला है नीच तू आज किस शान में। आज कोड़ों से चमड़ी उधेडूँ तेरी, जान ले लूँगा मैं आज एक आन में भी।।
ब०त०- आपको देखा मैंने न सरकार जी, इसलिये गल्तियाँ माफ कर दीजिये। अपने दिल में जरा माँख लाओ नहीं, हम गरीबों पे नजरे करम कीजिये ।।
नटराज
ब०त० - होके नौकर मेरा मुझसे बातें करे, तेरी हिम्मत जो मुझसे लड़ाया जुबाँ । हड्डी पसली तेरी आज टूट जायेगी, इसके आगे अगरचे लड़ाया जुबाँ ।। बड़कू किसान-ड्रामा-नहीं जमींदार साहब ! हम गरीबों
की अवकात कहाँ है ?
नटराज
कौ०- बड़कू जहर लगती है तेरी बोली। अभी तेरे सीने पे मारूँगा गोली ।। मेरा पाँच सौ रुपया कर्ज दे दो। नहीं तो मैं खेलूँगा खूनों की होली ।।
कौ०- नहीं पास में है मेरे एक पैसे। बड़कू किसान चुकाऊँगा मैं आपका कर्ज कैसे ।। मोहलत मुझे दीजिये कुछ दिनों की । कहें आप जो कुछ करूँगा मैं वैसे ।।
नटराज
ब०त० - एक दिन की भी मोहलत मिलेगी नहीं, मेरा कर्जा अभी ही अदा कीजिये। या तो चलकर महल में करो नौकरी, या तो कर्जा मेरा जो अभी दीजिये ।। बड़कू किसान-ड्रामा- हम इस वक्त कर्जा नहीं दे सकते हैं जमींदार साहब ! वैसे आपकी मरजी आप कुछ भी करें ।
( नटराज बडकू किसान को कैद करवा के महल में ले जाता है। इधर बड़कू की पत्नी लाजवन्ती कुछ सोचती रहती है तभी उसका बेटा अमृत आता है।)
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अमृत
दो०- माता जी यह आपका चेहरा क्यों गमगीन । अमृत बेटा पूँछता, चरण में होके लीन ।।
लाजवन्ती
दो०- अमृत बेटा जान लो, क्यों चेहरा गमगीन | पिता तेरे आये नहीं, जोतन गये जमीन ।।
अमृत
ब०त०- तुम इसीके लिये चिन्ता भारी किया, सूर्य डूबते ही बाबू घर आ जायेंगे। एक घन्टे के अन्दर न आयेंगे गर, खेत पर जायेंगे खेत पर जायेंगे ।।
लाजवन्ती
ब०त०-जाने क्यों आज मेरा धड़कता जिया, या विधाता किया क्या मैं तुमसे खता। जाओ बेटा मेरे खेत में इस घड़ी, बूढ़े बाबू का अपने लगाने पता ।।
( लाजवन्ती और उसका बेटा आपस में बातचीत करते रहते हैं तभी जमींदार
की छोटी बेटी विषैला आती है। )
लाजवन्ती-ड्रामा-कहिये ठकुराइन जी ! आज इस दुखिया के द्वार कैसे आना हुआ ?
विषैला-ड्रामा-माताजी ! अफसोस, पिताजी आपके पति को पकड़ कर महल ले गये और बाबू जी बोल रहे हैं कि जब तक तू मेरा पाँच सौ रुपया कर्ज नहीं देगा, तब तक तू मेरी गुलामी करेगा ।
लाजवन्ती-ड्रामा- ( गिर पड़ती है ) या भगवान ! ये मैं क्या सुन रही हूँ ?
अमृत-ड्रामा-माँ ! मैं अभी जमींदार के पास जा रहा हूँ और उनसे विनती करके बाबूजी को छुड़ा लाऊँगा।
लाजवन्ती
कहरवा- घर में रखा न एकउ पाई, कैसे चुकाई कर्जा। बड़ा बेदर्द जमाना है यह दर्द न जानइ कोय | कर्ज चुकावइ बरे पैसा अब कउन विधा से होय ।। केकरे आगे हाथ फैलाई ।। कैसे० ।। हम गरीब की कौन सुनेगा कोई नहीं हमारा । कर्ज से मुक्ति देकर भगवन नइया करो किनारा ।। कउनउ होइ जाते सहाई ।। कैसे० ।।
हाय रे पैसा बैरी होइके अजमत आज दिखाया। 'आशिक बनवारी' चन्दर काहे मुझको आज रुलाया।। अइसन बला शीश पे आई ।। कैसे० ।।
विषैला
( अमृत की माँ को रोते देखकर )
ब०त०- जैसे अमृत की माँ वैसे मेरी हो माँ, माताजी रो के मुझको रुलाओ नहीं। पाँच सौ रुपया कर्ज मैं दे रही, कर्ज दे दो मेरा मान करके कहा।।
लाजवन्ती
ब०त०-गरचे ठाकुर को ये बात मालुम हुई, मैं बची हूँ मेरी फाँसी लग जायेगी। इसलिये रुपया मुझको नहीं • चाहिये, मेरे बेटे पर भी गोली दग जायेगी ।।
विषैला
बoत०- ऐसा संसार में कोई है ही नहीं, जो तेरे लाल को जान से मार दे। लीजिये अमृत रुपया अभी पाँच सौ, आज से मैं तेरी तू मुझे प्यार दे ।।
अमृत
बoत० - जिन्दगी भर तेरा भूलूँ एहसाँ नहीं, हम गरीबों पे तू आज एहसान की। पाँच सौ रुपया के बदले में जान लो, वक्त पे मैं लगा बाजी दूँ जान की ।।
विषैला ड्रामा- यह बात किसी को न मालूम हो कि किसने पाँच सौ रुपया दिया। अमृत ! मेरे पिताजी से बोल देना कि मेरा स्कूल से वजीफा मिला है। ( अमृत पाँच सौ रुपया लेकर जाता है।
इधर जमीदार नटराज रन्जीत को कोड़े दे देता है। रन्जीत बड़कू किसान को खूब मारता है तभी अमृत पहुँचकर )
अमृत
बoत०- रोकिये रोकिये कोड़े रन्जीत सिंह, मेरे बापू पे कोड़े चलाना नहीं। आपका कर्ज है आप ले लीजिये, मारने के लिये पग बढ़ाना नहीं।।
रन्जीत
बoत०-कौन है कोड़ा जो तू मेरा रोकता, यह मेरा कोड़ा हरगिज रुकेगा नहीं। गर तुझे दर्द है दो अभी पाँच सौ, इस तरह रुपया सीधे मिलेगा नहीं।।
अमृत
ब०त०-लीजिये लीजिये पाँच सौ रुपया, किन्तु अब कोड़े एक भी चलाना नहीं। आप लोगों को भगवान का शुक्र हो, अब गरीबों पे यह जुल्म ढाना नहीं ।।
नटराज-ड्रामा-लाइये रुपया ! मैं तुम्हारे पिताजी को मुक्त कर दूँगा ।
( मन में सोचते हुये ) यह छोकरा पाँच सौ रुपया पाया कहाँ से ?
( अमृत पाँच सौ रुपये देकर अपने पिता को छुड़ा लेता है, और अपने बूढे पिता को कन्धे पर बिठाकर घर ले जाता है।
उधर जमीदार नटराज की बड़ी बेटी बिंदिया आती है। )
बिंदिया
दो०- बाबू बेटी आपकी, छुये आपका पैर । बहन विषैला ने किया है जाने क्यों बैर ।।
नटराज
बoत०- तुम भी बेटी मेरी वो भी बेटी मेरी, तो भला दोनों में काहे की तकरार है। राज्य का आधा जागीर बिंदिया तेरा, और विषैला को भी आधा अधिकार है।
आने दो विषैला को समझाय दूँ, आपस में झगड़ा करना बुरी बात है। दूसरा कोई आँखें दिखाया अगर, फोड़ दूँ आँख उसकी क्या अवकात है ।।
ड्रामा – ( समझाते हुये ) बेटी बिंदिया ! आपस में दोनों बहन मिलकर रहो, हमारे लिये जैसे बिंदिया वैसे विषैला । घर आने दो उसे समझा दूँगा।
( सीन बनाइये - इधर अमृत अपने पिता को घर पहुँचा के किताब उठाता है और कालेज के लिये तैयार होकर चल देता है। रास्ते में उसे विषैला मिलती है। )
विषैला- ड्रामा - अमृत बाबू ! जरा रुकिये, मैं भी कालेज चल रही हूँ।
अमृत ड्रामा-विषैला ! रुकने का समय नहीं है, क्योंकि आज कई दिन बाद कालेज जा रहा हूँ। विषैला ( अमृत का हाथ पकड़कर )
भोजपुरी - जिस दिन से अमृत लड़ी है नजरिया,
कसम से मैं हो गई तुमपे बवरिया | सइयाँ जाओ ना।
मानि ले बचनियाँ हमार ।। सइयाँ० ।।
अमृत भोजपुरी- कहा मानिके छोड़ा हमरी डगरिया, दिल के सम्हाल रखा बना न बवरिया । तोहरा कई बतिया अहइ इन्कार ।। गोरिया० ।।
गोरिया जाओ ना ।।
विषैला
शैर- मेरी मस्ती तुम्हारे मद में झूम जाये ला । चैन आये नहीं ई रात दिन तड़पाये ला ।।
अमृत शैर- आपका सोचना देवी जी सब बेकार अहइ । समझती गुल हो जिसे वह तो एक खार अहइ ।।
विषैला
भोजपुरी बाली उमरिया लचकइ कमरिया, हुश्न कइ चलत अहइ दिल पे कटरिया । सइयाँ जाओ ना। इहइ बाटइ अरजी बारम्बार ।। सइयाँ ।।
अमृत
भोजपुरी- आपन बचावा तू कोरी चुनरिया, 'आशिक बनवारी' बाटें पूरा अनरिया । नयना करो न दो से चार ।। गोरिया० ।।
गोरिया आओ ना।
विषैला
बoत०- प्यार को गर्चे ठुकरायेंगे इस घड़ी, खेल जाऊँगी मैं अपने इस आन पर कल ही कफ्फन नजर आयेगा लाश पर, शान से मर मिटू अपने इस आन पर ।।
अमृत बoत०- देवी जी प्यार करना सभी जानते, प्यार को निभाना न आसान है। गम मुसीबत सहन कर सकोगी नहीं, जिन्दगी तो सुनो एक तूफान है।।
विषैला
ब०त०- काँटों पे चाहे चलना पड़ेगा मुझे, आँसू भी पीके जी सकती हूँ मैं सनम । हीर रांझा का देखो अगर प्यार है, इसलिये पा गये दूसरा वो जनम ।।
( विषैला अमृत से प्यार करने की कोशिश करती है। अमृत के प्यार न करने से विषैला रूठकर चल देती है। )
अमृत दो०- रुक जाओ गुन्चेदहन, तेरा प्यार है मन्जूर । तेरे दिल पे इस समय, दिल मेरा है चूर ।।
विषैला
दो०- अमृत जाने दो मुझे, क्यों कर रहे मजाक। आज मेरे अरमान को, किया है तूने खाक ।।
अमृत
बoत० - झूठ मैं कह रहा हूँ विषैला नहीं, मैंने दिल से तुम्हें आज अपना लिया। अब तेरे प्यार का प्यासा मैं हो गया, अब बिना देखे तुमको न माने जिया ।।
ड्रामा-विषैला ! तुम्हें अब भी यकीन नहीं है ? मैं अपने जवानी की कसम खाकर कहता हूँ कि मैं तुमसे दिली प्रेम करता हूँ। (विषैला अमृत के सीने से एकदम लिपट जाती है। अमृत भी विषैला को सीने
से लिपटा लेता है। विषैला खुश हो जाती है।)
अमृत
बoत० - आओ फिर से लगा लूँ गले जानेमन, चलते हैं घर को अब हाथ में हाथ दो। शुक्रिया हो कि हम तुम सलामत रहें, ताउमर के लिये यह मुझे साथ दो।।
विषैला-ड्रामा-अब कब और कहाँ मुलाकात होगी अमृत ? अमृत-ड्रामा-जब कहो और जहाँ कहो वहाँ मुलाकात हो जायेगी विषैला !
विषैला- ड्रामा कल इसी मन्दिर के पीछे हम तुम मिलेंगे अमृत !
कवि
दो० - इधर सूर्य डूबने चला, होने को थी शाम। अमृत मन में सोचता, पहुँचा अपने धाम ।।
( लाजवन्ती खुशहाल बैठी रहती है, तभी अमृत का आना ) लाजवन्ती ड्रामा बेटा अमृत ! आज बड़े खुशी की बात है कि तेरे बड़े भाई जीतेन्द्र ने आज पाँच साल
बाद फिर चिट्ठी भेजा है।
अमृत-ड्रामा-कहाँ है चिट्ठी माँ ! लाजवन्ती - ड्रामा - यह लो बेटा ! इसे पढ़कर हमें और अपने पिता को सुना दो ।
अमृत-ड्रामा-( चिट्ठी पढ़ते हुये ) माताजी व पिताजी को सादर प्रणाम ! मैं कुशल पूर्वक हूँ। खुशी इस बात की है कि मैं कितना खुशनसीब हूँ जो कि मुझे फौज की नौकरी मिल गई है। मैं फौजी जवान हूँ और देश की रक्षा कर रहा हूँ। मैं घर आने का प्रयास बहुत करता हूँ, किन्तु सरकार छुट्टी नहीं दे रही है। हमारी तरफ से छोटे भाई अमृत को आशीर्वाद स्वीकार हो ।
-आपका बेटा जीतेन्द्र फौजी
बड़कू किसान- ड्रामा- जीते रहो बेटे ! ईमानदारी से देश की रक्षा करो, भगवान तुम्हारा भला करे। (अमृत) से कहते हुये ) बेटा अमृत ! कल अपने बड़े भाई जीतेन्द्र के पास घर का समाचार लिख कर चिट्ठी डाल देना ।
अमृत-ड्रामा- ठीक है पिताजी! आप चिन्ता न करें। मैं कल ही घर का समाचार लिखकर चिट्ठी डाल दूँगा।
( इधर दरबार में नटराज बैठे रहते हैं तभी विषैला का आना )
दो०-पिताजी बेटी आपकी, करती है परनाम । विषैला '
नटराज
दो०- - अजर अमर बेटी रहो, चमके तेरा नाम ।। ड्रामा-बेटी विषैला ! मुझे बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि तुमसे और तुम्हारी बहन बिंदिया से क्या बात है, जो आपस में लड़ाई होती रहती है।
आपस में लड़ाई नहीं करना चाहिये बेटी !
( सीन बनाइये – विंदिया विषैला का कपड़ा पहनकर सन्तोषी माँ के मन्दिर पूजा करने के लिये मन्दिर जाती है। उधर अमृत विषैला से मिलने के लिये उसी मन्दिर के पास जाता है जिस मन्दिर में बिंदिया पूजा कर रही थी। अमृत बिंदिया को विषैला समझकर उसकी आँख बन्द कर लेता है। )
बिंदिया (क्रोधित होकर )
ब०त०- तेरी हिम्मत तू मन्दिर में आया मेरे, हाथ क्यों तू लगाया है तन में मेरे । क्या समझ सोचकर तुम यहाँ आ गये, आज चमड़ी उधाडूं की तेरे । ।
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अमृत
ब०त० माफ कर दो मुझे बिंदिया तुम इस घड़ी, मैं गुनहगार हूँ मैं गुनहगार हूँ। आपको जानकर मैं न आया
'यहाँ, मैं गुनहगार हूँ मैं खतावार हूँ ।।
बिंदिया
बoत०-सीधे साधे चलो अमृत घर को मेरे, वर्ना अंजाम • इसका बुरा पायेगा। अपनी हरकत का हरगिज सजा पायेगा, आज मुल्के अदम को चला जायेगा।
अमृत ड्रामा- मुझे माफ कर दो ठकुराइन ! मैं जान की भीख माँगने के लिये तुम्हारे पाँव पड़ता हूँ।
बिंदिया-ड्रामा-मैं कुछ नहीं सुनूँगी। तुम्हें मेरे साथचलना होगा।
( मौका मिलने पर अमृत मन्दिर से निकल भागता है।बिंदिया क्रोधित होकर अपने घर जाती है
बिंदिया ( अपने पिता से
ब०त०- हे पिता आपका जीना धिक्कार है, आप जमींदार क्या एक गद्दार हैं। आपके राज्य में कोई कुछ भी करे, आपकी शहनशाही अब बेकार है ।।
नटराज
बoत०-बेटी बिंदिया तुम्हें आज क्या हो गया, आज तक ऐसी बातें सुनाया नहीं। क्या किसी ने तुम्हें कुछ कहा लाडली, कौन है शख्स जो खौफ खाया नहीं।।
बिंदिया
बoत० - जैसे मन्दिर में पूजा मैं करने चली, वैसे ही आया बड़कू का अमृत पिसर। जानकर वह अकेली पिताजी सुनो, वह लगा छेड़ने उसको आया न डर ।।
नटराज - ड्रामा -बिंदिया ! तू चिन्ता न कर ! हम बड़कू का पूरा परिवार नष्ट कर देंगे ।
बिंदिया- ड्रामा- पिताजी ! मैं ठाकुर की बेटी हूँ ! मेरा खून खौल रहा है। आज बिंदिया बन्दूक लेकर बड़कू के घर जायेगी। मैं आज खुद फैसला करके आऊँगी।
नटराज-ड्रामा-जाओ बेटी ! अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो जाओ, मेरे कमरे में बन्दूक रखी हुई है।
( सीन बनाइये बिंदिया क्रोध में आकर बन्दूक उठाती है और बड़कू के पास चल देती है।
इधर लाजवन्ती अपने बेटे से कहती है।
लाजवन्ती
कौ०- मेरे लाल तुम आज खेतों में जाओ।
बाबू को अपने तू खाना पहुँचाओ ।।
अमृत
कौ०-खेतों में मैं आज जाऊँगा माता ।
बाबू को खाना पहुँचाऊँगा माता ।।
लाजवन्ती-ड्रामा-यह लो खाना और जाओ अपने पिताजी को खाना देकर चले आना।
( अमृत अपने बाबू का खाना लेकर चल देता है, उधर खेत में बिंदिया पहुँचती हैं । )
बिंदिया
ब०त० - रोक लो बड़कू हल को चलाओ नहीं, क्योंकि भूखी हूँ मैं क्रोध की भूख से। आज संसार में तू रहेगा नहीं, भून डालूँगी मैं आज बन्दूक से ।।
बड़कू किसान
ब०त० - आज क्या हो गया कहिये ठकुराइन जी, करके तुम कष्ट कैसे यहाँ आयी हो। क्रोध में आँख काहे को अंगार है, साथ में काहे बन्दूक को लायी हो ।।
बिंदिया
दो०- तेरा बेटा संग में मेरे, किया बड़ा अन्याय । इसका बदला आज मैं, तुमसे लेंउ चुकाय ।। •
बड़कू किसान
दो०- बिंदिया क्या तुम कह रही, समझ न आई बात । यह बातें सब झूठ हैं, उसकी क्या औकात।।
बिंदिया-ड्रामा–बड़कू ! मरने के लिये तैयार हो जा।
तूने अपने बेटे अमृत को खूब बढ़ा चढ़ा दिया है।
बड़कू किसान-ड्रामा-बिंदिया ! अगर ये बात सत्य होगी तो तुम मुझे जान से मार डालना। आने दो हम उससे पूछेंगे ।
बिंदिया- ड्रामा- मेरे पास इतना वक्त कहाँ है ?
कवि
दो०- होकर बिंदिया क्रोध से, आँखें की अंगार। झट बन्दूक उठाय कर, दीन्हा गोली मार ।। बड़कू गिरा जमीन पर, हाय हाय चिल्लाय । खाना लेकर उस समय, अमृत पहुँचा जाये ।।
अमृत ( पिता को मरा देखकर )
अमृत
दो०- पिता आपके साथ में, कर दी क्या यह हाल। कुछ तो बोलों हे पिता, पूँछे तेरा लाल।। ड्रामा-या भगवान ! पिता का खून किसने किया ? अब
चलकर माता जी से बताना चाहिये । ( अमृत दौड़ता हुआ अपनी माता के पास आता है, और जमीन पर गिर पड़ता है।) अमृत-ड्रामा - माताजी ! पिता का खून हो गया ।
लाजवन्ती - ड्रामा - ( गिर पड़ती है ) या भगवान ! यह तूने क्या कहा ? चलो बेटा ! जल्दी चलो, जहाँ तुम्हारे पिता जी हों।
लाजवन्ती ( रोती हुई )
गजल- मेरे भगवान तू ही बता दो,कैसे गम का टूटा आज तारा। पाप किसने किया यह विधाता,
जो कि पति को मेरे आज मारा ।। इस अभागिन से कुछ नाथ बोलो,एक पल के लिये नयन खोलो। मेरा दिल जल रहा है चिता में,
कोई जग में नहीं है हमारा ।।में है नहीं एक पाई,गाज ऐसे प्रभू ने गिराई ।पास बेकफन को दफन कैसे कर दूँ, गाँव वालों मुझे दो सहारा ।।
लिखा तकदीर में क्या विधाता, 'आशिक बनवारी' से टूटा नाता। हाथ फैलाया 'चन्दर ' मैं तुमसे,
दे दो कपड़ा कोई तन उतारा ।। अमृत- ड्रामा-माँ ! रोवो न, चाहे कोई कफन का पैसा दे या न दे। मैं अपने कपड़े उतार कर पिताजी का कफन दफन कर दूँगा। माँ ! जिसने पिता का खून किया है, वह है ठाकुर की बेटी बिंदिया। बिंदिया ! तुम्हारी मौत मेरे ही हाथ से होगी।
( सीन बनाइये अमृत अपने कपड़े उतार कर कफन दफन कर देता है। उधर बिंदिया अपने पिता के पास आती है। )
बिंदिया
कौ० - पिताजी बड़कू को गोली से मारा। अभी उसका बेटा बचा है हत्यारा ।।
नटराज
कौ०–किया तूने अच्छा जो उसको तू मारा। खुशी दिल हमारा खुशी दिल हमारा ।।
बिंदिया-ड्रामा-पिताजी ! ये बन्दूक सम्हालो और मैं सन्तोषी माँ की पूजा करने के लिये मन्दिर में जा रही हूँ।
नटराज-ड्रामा-जाओ बेटी ! लेकिन अमृत से बच कर रहना। हो सकता है वह बदला चुकाये।
बिंदिया-ड्रामा-वह क्या बदला चुकायेगा ? उसकी क्या औकात है ? वह मेरे सामने मुँह नहीं दिखायेगा।
( इधर बिंदिया पूजा करने के लिये मन्दिर में चल देती है। उधर जीतेन्द्र फौजी नदी के किनारे उदास बैठा रहता है, तभी एक डाकिया चिट्ठी लेकर आता है। )
जीतेन्द्र फौजी ( चिट्ठी पढकर रोते हुये )
बoत०- शीश पे गाज कैसे विधाता गिरी, अब तलक थी खुशी पर हुआ आज गम जाने कैसे पिताजी खतम हो गये, मुझको अफसोस है क्यों निकलता न दम।। मैं हूँ फौजी मुझे मिलती छुट्टी नहीं, फिर भला कैसे जाऊँगा अपने वतन । देश हित के लिये मर मिटेंगे सदा, हे पिता है अभागा तुम्हारा ललन ।।
ड्रामा-हम देश के जवान हैं। हम देश के लिये कुर्बान हो जायेंगे। देश खतरे में है, इस मजबूरी के कारण
घर जाना असम्भव है। ( इधर अमृत सिर झुकाये रोता हुआ बैठा रहता है, तभी विषैला अमृत से मिलने
के लिये उसके पास आती है। )
विषैला
कौ०- कहो अमृत मेरे क्यों सर झुकाये रोते हो । गोरे इन गालों को अश्कों से काहे धोते हो।।
अमृत
कौ० लिखा तकदीर में आँसू ही बहाने को। चला हूँ आज मैं ये गम में दिल जलाने को ।।
विषैला
कौ० - मेरे जाने जिगर कुछ तो तुम्हें बताना है। हमारे सामने तुमको तो मुस्कराना है।।
अमृत
ब०त०-क्यों जख्मों पर
अमृत
ब०त०-क्यों जख्मों पर नमक डालती हो मेरे, मैं मरूँ या जियूँ तुमसे क्या वास्ता। मेरे चक्कर में तुम न विषैला पड़ो, सीधे जाओ जहाँ जाना हो रास्ता ।।
विषैला
बoत०- आज क्या हो गया तुमको मेरे सजन, दिलफटी बात जो कि हो तुम बोलते। कौन सी गम की दरिया में डूबे हुये, बात क्या राजेदिल जो नहीं खोलते ।।
अमृत
ब०त० - बिंदिया ने बाबू को मारा बन्दूक से, चल बसे बाबू जन्नत मुझे छोड़कर। मैं कंगाल तू है धनी की सुता, आज से भूल जाओ यह दिल तोड़कर ।।
विषैला- ड्रामा-आखिर क्यों ? बिंदिया ने बाबू का खून किया ?
अमृत - ड्रामा- अपने दिल से क्यों नहीं पूछती विषैला ! तुमने प्यार करके झूठा वादा किया। मैं मन्दिर में गया और तुम्हें समझ कर तुम्हारी बहन का हाथ पकड़ लिया। इसी का नतीजा है कि मेरे पिता को जान गँवाना पड़ा।
विषैला- ड्रामा-अमृत ! तुम घर जाओ। मैं भी घरं जाती हूँ और वह बात पिताजी को बताती हूँ।
कवि
कौ० - बात सुनकर विषैला को लग गयी आगी। रुकी एक पल नहीं वह इस तरह से भागी।।
दो०-बैठे थे दरबार में, जमीदार नटराज । पहुँच विषैला कह दिया, अपने दिल का राज ।।
विषैला
दो०- मुझको मालूम हो गया, पिता जो कीन्हा आप | बिंदिया ने बन्दूक से, किया गजब है पाप ।। कौ० – बिंदिया ने बड़कू को जन्नत पठाया। तुम्हें सब है मालूम मुझे न बताया ।।
बिंदिया को फाँसी अभी दीजै बाबू। उसे मरवा करके पिताजी क्या पाया।।
नटराज
कौ०- मेरी लाडली तुमको किसने बताया। जिगर बीच में कैसे सदमा समाया ।। बिंदिया ने बड़कू को मारा नहीं। अफवाह झूठी किसीने है उड़ाया।
विषैला
कौ०- मुझे अमृत ने सब बताया कहानी । उसी पे पिताजी हूँ मैं भी दीवानी ।। अब मैं भी करूँगी जो दिल मेरा चाहे। खुले आम उसकी बनूँगी मैं रानी ।।
नटराज
- ड्रामा- कमीनी ! ऐसा कहते हुये तुझे शर्म नहीं आती। मेरी मरजी मैं कुछ भी करूँ। तुम्हारा कुछ मेरे ऊपर अधिकार नहीं है । विषैला-ड्रामा-तो आपका भी मेरे ऊपर कुछ अधिकार
नहीं है पिताजी !
अब मैं भी मनमानी करूँगी।
नटराज-ड्रामा-लेकिन तुम आज से कहीं घूमने नहीं जाओगी। ( रन्जीत को बुलाते हुये ) रन्जीत ! आज से विषैला घर से बाहर कहीं न जाने पाये। यह तुम्हारी सख्त ड्यूटी है। इसे कैदी बना के कैदखाने में बन्द कर दो। रन्जीत-ड्रामा - जैसी आपकी मरजी हो जमींदार साहब !
कवि
दो०- गौर करो इस बात को, आगे देखो खेल । जमींदार नटराज ने, सुता को कीन्हा जेल ।। रन्जीत - ड्रामा - जमींदार साहब ! मैंने विषैला को बन्दी बना दिया।
नटराज - ड्रामा - बहुत अच्छा किया। वो जेल से भागने न पाये। नहीं तो मेरी इज्जत पर धब्बा लगा देगी।
इधर दरबार समाप्त हो जाता है। रन्जीत सैर करने के लिये चल देता है। रास्ते में पानी जोरों से बरसता है। रन्जीत पानी से बचने के लिये मन्दिर में जाता है। रन्जीत बिंदिया को मन्दिर में अकेले पाकर छेड़खानी करता है।)
रन्जीत गजल- तेरे नक्शे पे मैं हूँ दीवाना,
सीने से आ लिपट गुल हसीना। मद भरी मस्त आँखें तुम्हारी, तेरे होठों से है जाम पीना।।
बिंदिया
गजल- जिस्म पे हाथ अब न लगाना, भाग जा दुष्ट पापी कमीना। मान मेरा वचन दूर हट जा,
मुश्किल हो जायेगा तेरा जीना ।।
रन्जीत
गजल- तेरी खुशबू जहाँ से निराली, तेरे हुश्ने चमन का हूँ माली। क्या खुदा ने तुम्हें है बनाया,
कैसा सुन्दर है ये तेरा सीना ।।
बिंदिया
गजल-खाक में जाये तेरी जवानी,घर में जा तेरी बहना सयानी ।आबरू आज चन्दर' बचाना,
करके हिम्मत दिखा दो पसीना ।।
रन्जीत
गजल- हुश्न की जल रही दिल में आगी, होगी रंगीन चूनर ये दागी । 'आशिक बनवारी' से यूँ न रूठो, आखिर दिल मेरा काहे को छीना।।
बिंदिया
बoत०-छोड़ मेरी कलाई अरे बेशरम, सीधे अपनी डगर जा अरे नीच तू। जान करके अकेली मुझे इस घड़ी, छोड़ दे मेरा आँचल को ना खींच तू ।।
रन्जीत
ब०त०-चन्दा से कम नहीं हो मेरी चाँदनी, चाहे जो कुछ कहो ये तेरी भूल है। आज हँस के गले से लगा लो मुझे, हर गुलों से खिली एक तू फूल है ।।
( सीन बनाइये - रन्जीत बिंदिया के साथ जबरन प्यार करता है। बिंदिया गुस्से में एक हाथ आँख पर मार देती है। रन्जीत क्रोधित होकर उसे नदी में ढकेल देता है और नटराज के सामने पहुँचकर चुगली एवं चालबाजी पेश करता है।)
रन्जीत
कौ० - जमींदार सर पे गिरी गाज भारी । किया दुष्ट अमृत बड़ा धोखाधारी ।।
नटराज
कौ० – अमृत ने कैसे किया धोखाधारी । मुझे भी हकीकत बता बात सारी।।
रन्जीत
शैर-आँखों से अपने देखकर आता हूँ जमींदार जी अमृत खूब करने लगा नगर में अत्याचार जी ।। कौ०-ठाकुर जी बिंदिया तो यमपुर सिधारी ।। किया०।।
नटराज
शैर-क्या सत्य रन्जीत ! जो तुमने बताया बात यह मुझको यकीन हो गया अमृत ने कीन्हा घात यह ।। कौ० – अमृत मैं देखूँगा ताकत तुम्हारी ।। मुझे० ।। ड्रामा-सच बता रन्जीत ! तुमने अपनी आँखों से क्या-क्या देखा है ?
रन्जीत - ड्रामा- जमींदार साहब ! मैंने अपनी आँखों से देखा है कि अमृत बिंदिया की इज्जत पर हमला कर रहा था। जब अमृत ने दूर से मुझे आते हुये देखा तो बिंदिया को नदी में फेंककर भाग निकला। नटराज- ड्रामा- यह मेरा हुक्म है रन्जीत ! अमृत जहाँ कहीं भी मिले उसे जिन्दा या मुर्दा मेरे पास पकड़ कर लाओ ।
रन्जीत - ड्रामा - इसकी चिन्ता न करें जमींदार साहब ! अमृत क्या ? अमृत के बाप को भी पकड़ कर ला सकते हैं।
कवि
दो०- अमृत को रन्जीत सिंह, करने लगा तलाश । उधर जीतेन्द्र दरियाव में, जिन्दा पाया लाश ।।
जीतेन्द्र फौजी-ड्रामा- अरे यह तो कोई नवयुवती - है। मालूम पड़ता है जैसे इसे किसी ने इसे नदी में जबरन फेंक दिया हो। मैं इसका इलाज करवा के इसे ठीक करूँगा ।
( सीन बनाइये - जीतेन्द्र फौजी उस लड़की को गोद में उठाकर अस्पताल में ले जाता है और अच्छे ढंग से इलाज करवाता है। वह लड़की ठीक हो जाती है। यह लड़की वही बिंदिया थी जिसे रन्जीत ने दरियाव में फेंक दिया था।)
बिंदिया
( जीतेन्द्र के पाँव पड़ते हुये )
ग०- किसी की जाँ बचाये जो वही भगवान होता है। न जाने क्यों आप पर मेरा दिल कुर्बान होता है ।। दो०- आपने जो कुछ हो सका, कर डाला एहसान। इसके बदले मैं तुम्हें, दे सकती हूँ जान ।।
जीतेन्द्र फौजी
दो०- हमसे जो कुछ हो सका, कर डाला एहसान। आपको नवजीवन मिला, खुशियाँ यही महान।।
बिंदिया
ब०त०- आपका नाम क्या है बता दीजिये, आपके साथ मैं भी रहूँगी सनम होगी शादी तो मेरी तेरे साथ में, खाके कहती हूँ सन्तोषी माँ की कसम ।।
जीतेन्द्र फौजी
बoत० - देवी जी क्या कहा कुछ न आया समझ, मैं अभागा हूँ मुझसे न शादी करो। मैं तो सुख चैन कुछ भी नहीं जानता, शादी करके मुझसे न बर्बादी करो ।।
बिंदिया
ब०त० - चाहे जो कुछ भी हो हमको मन्जूर है, आप अपनी दुल्हनियाँ बना लीजिये। ता उमर मैं दबाऊँ चरण आपका, इस दिवानी को दिल में जगह दीजिये ।।
जीतेन्द्र फौजी
ब०त० - साथ मेरे चलो मैं हूँ रहता जहाँ, फिर वहीं तुमसे कुछ बात हो जायेगी। प्यार राहों में करना उचित है। नहीं, जल्द चलिये नहीं रात हो जायेगी ।।
बिंदिया- ड्रामा- अच्छा मैं आपसे एक प्रश्न करती हूँ उसका जवाब हाँ या नहीं में देना होगा ( बिंदिया अदा के साथ ) आप मुझसे शादी करेंगे या नहीं ?
जीतेन्द्र फौजी- ड्रामा - हाँ ! हमें मन्जूर है बिंदिया ! हमारे आँख की तुम बिंदिया हो बिंदिया ! हम इसी माह के अन्दर ही तुमसे अग्नि को साक्षी मानकर तुम्हारी माँग में सन्तोषी माँ के मन्दिर में सिन्दूर भर देंगे।
( इधर जीतेन्द्र फौजी तथा बिंदिया दोनों के चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है और दोनों नदी के किनारे जहाँ जीतेन्द्र का खूबसूरत टेण्ट ( तम्बू) पड़ा था वहीं के लिये प्रस्थान करते है। इधर रन्जीत बड़कू किसान के घर जाता है और लाजवन्ती से पूछता है।)
रन्जीत
दो०- लाजवन्ती सुन आज मैं, करता एक सवाल। साफ साफ बतलावय दे, कहाँ है तेरा लाल ।।
लाजवन्ती
दो०- बेटा पढ़ने के लिये, गया हुआ स्कूल। आखिर अब क्या हो गया, क्या उसने की भूल ।।
रन्जीत
ब०त०- बात सुनना है तो लाजवन्ती सुनो, तेरे बेटे ने है जुल्म भारी किया । बिंदिया ठकुराइन को फेंका दरियाव में, औ जमींदार को साला गाली दिया ।।
लाजवन्ती
ब०त०-झूठा इल्जाम उस पर लगाओ नहीं, मेरा बेटा न ऐसा करेगा कभी गम की गर्दिश पड़ी है खुदी शीश पे, आप जो कह रहे वो गलत है सभी ।।
रन्जीत
बoत० - अपनी आँखों से देखा हूँ मैं पापिनी, अपनी करनी की वह पायेगा अब सजा। मेरे जमींदार की अब तो जिद है यही, अमृत पायेगा अब तो कड़ी ही सजा ।।
( तब तक अमृत आ जाता है)
अमृत
ब०त०- कौन है जो मेरी माँ को धमका रहा, अब तेरी तानाशाही सुनूँगा नहीं। झूठी बातों से मैं करता हूँ अति घृणा, इसलिये बात हरगिज सहूँगा नहीं।।
( सीन बनाइये रन्जीत पिस्टल निकाल कर अमृत के सीने पर लगा देता है और अमृत को कैद कर लेता है। )
लाजवन्ती
- ड्रामा-छोटे सरकार ! मैं आपके पाँव पड़ती हूँ। मेरे बेटे को मुझसे जुदा न करो। नहीं तो मैं जहर खाकर मर जाऊँगी। मैं बेटे के बिना जिन्दा नहीं रह सकती ।
रन्जीत - ड्रामा- तू मरे या जिये । हम तुम्हारे मरने जीने का ठेका लिये हैं क्या ?
कवि
कौ० रन्जीत अमृत को कैदी बनाया। लाजवन्ती गश खाकर आँसू बहाया।। किया लाजवन्ती विनय हर तरह से। निरमोही फिर भी ले दरबार आया ।।
नटराज- ड्रामा-लगा दो इसको हथकड़ी और ये लो हमारा हन्टर और इसकी एक पर्त की चमड़ी उधाड़ लो ।
रन्जीत-ड्रामा- ऐसा ही होगा जमींदार जी !
( रन्जीत अमृत को कोड़े से मारता है। अमृत के शरीर से खून निकलने लगता है। उधर विषैला राज महल के कमरे में देख जाती है। विषैला शीशे का दरवाजा तोड़कर अमृत के पास आ जाती है। )
विषैला-ड्रामा-पिताजी ! मैं आपके पाँव पड़ती हूँ, इन्हें कोडे से न मरवायें नहीं तो मेरा इसी जगह दम निकल जायेगा।
नटराज - ड्रामा - अपने दुश्मन को मारूँगा नहीं तो क्या पूजा करूँगा ? बिंदिया को इसी ने दरियाव में फेंका है।
विषैला- ड्रामा-अमृत ऐसा कभी नहीं कर सकता है पिताजी ! यह सब रन्जीत की एक चाल है। पिताजी ! एक दिन आप पछतायेंगे ।
नटराज
कौ० – रन्जीत पल भर न देरी लगाओ। इन दोनों को फौरन कैदी बनाओ ।। अलग ही अलग कमरे में बन्द कर दो। बिंदिया का बदला तुम इससे चुकाओ ।।
रन्जीत-ड्रामा-आप इसकी चिन्ता न करें। ( नटराज अमृत और विषैला को अलग-अलग कमरे में बन्द करवा देता है। )
( सीन बनाइये - जीतेन्द्र फौजी बिंदिया को साथ लेकर सन्तोषी माँ के मन्दिर में जाता है और दीपक जलाकर बिंदिया की माँग में सिन्दूर भर देता है।
दोनों मन्दिर से बाहर आकर गले से लिपट जाते हैं। दोनों पुनः अपने स्थान पर पहुँच जाते हैं।
बिंदिया सुहागरात के लिये बैठी रहती है तभी जीतेन्द्र आता है।)
बिंदिया
ग०- सनम सेजों पे आ जाओ मिलन की आज रैना है। तुम्हारे दरश के खातिर तरसते दोऊ नैना है।।
जीतेन्द्र
ग०- मेरी तबियत नहीं अच्छी सुहाग की बात न करिये। घड़ी में बज गये बारह प्रिये अब रात न करिये ।।
बिंदिया
ग० - सजन नजरों से तू अपने मुझे अब दूर न कीजिये । अभागा प्यार है मेरा इसे मजबूर न करिये ।।
जीतेन्द्र - ड्रामा - मुझे नींद आ रही है बिंदिया ! मुझे सो जाने दो । (बिंदिया नाराज होके बिस्तर पे सर झुकाये बैठ जाती है। बिंदिया का दिल
बहलाने के लिये जीतेन्द्र उसकी कलाई पकड़ कर )
जीतेन्द्र
कौ०- आँख से आँख मिलाओ तो मजा आ जाये । उल्फते जाम पिलाओ तो मजा आ जाये ।।
बिंदिया
कौ०-करीब दिल के आओ तो मजा आ जाये। प्यार का दीप जलाओ तो मजा आ जाये ।।
जीतेन्द्र फौजी और बिंदिया दोनों खूब जम के रात भर वस्ल का जाम पीते हैं। इधर बड़कू किसान की औरत बेटा अमृत के वियोग में जमींदार के दरबार में जाती है। रन्जीत शराब पीते हुये बैठा रहता है।)
लाजवन्ती-ड्रामा-( मन में सोचते हुये ) या भगवान ! यह तूने क्या किया। दो बेटे थे, दोनों को मुझसे अलग कर दिया, अब मेरी जिन्दगी का कौन सहारा होगा ?
रन्जीत-ड्रामा - ( लाजवन्ती को देखकर ) आज अपने दिल की प्यास इससे जरूर बुझायेंगे। तुम्हारा ही इन्तजार था। आओ
लाजवन्ती-ड्रामा-छोटे सरकार ! पहले ये बताओ कि मेरा बेटा अमृत कहाँ ?
रन्जीत-ड्रामा- अगर दो घूट शराब पी लो तो मैं तुम्हारे बेटे से तुमको मिला सकता हूँ।
लाजवन्ती-ड्रामा- शराब क्या छोटे सरकार ! मैं जहर भी पी सकती हूँ, लेकिन एक बार मेरे बेटे से तो. मिलवा दो ।
( सीन बनाइये – रन्जीत लाजवन्ती को झूठी तसल्ली देकर कमरे में ले जाता है और कमरा बन्द करके उसकी आबरू लूट लेता है। लाजवन्ती बेहोश होकर खत्म हो जाती है। रन्जीत लाजवन्ती को उठाकर सड़क पर रख देता है और नटराज के पास जाता है। )
रन्जीत
दो०- ठाकुर जी मेरी बात को सुनौ लगाकर कान । लाजवन्ती ने द्वार पे गवाँ दिया है जान ।।
नटराज
दो०-क्या कहते रन्जीत हो, यह कैसा तूफान । लाजवन्ती ने किस तरह गवाँ दिया है जान ।।
रन्जीत
ब०त०- बेटा बेटा ही कहती जमींदार जी, बेटे की याद में खतम है हो गई। दौड़कर जब गया उसके मैं पास में, वो खतम हो गई वो खतम हो गई ।।
नटराज
ब०त० - खैर जो कुछ हुआ वो तो हो ही गया, उसके बेटे को भी अब खबर दीजिये। बोल देना कि माता तेरी मर गई, कैद से उसको हाजिर यहाँ कीजिये ।।
रन्जीत- ड्रामा- मैं अभी जा रहा हूँ ठाकुर साहब !
अमृत को खबर सुना कर उसे यहाँ हाजिर कर दूँगा। ( रन्जीत अमृत को हथकड़ी लगाकर दरबार में ले जाता है, अमृत माँ की लाश देखकर गिर पड़ता है )
अमृत-ड्रामा-( चीखते हुये ) नहीं** 'नहीं माँ ! तुम्हें किसने मारा माँ ! कुछ तो बोल माँ ! तेरा अभागा लाल अब कहाँ जाये ?
नटराज - ड्रामा - इसे पुनः जेल ले जाओ। जेल में बन्द कर दो ।
कवि
दो०- गौर करो अब दोस्तों, तुम्हें रहे समझाय
अमृत को रन्जीत ने, कैदी लिया बनाय ।। " बनवारी' तेरी कृपा है, जग में अपरम्पार । किया विषैला कुछ यतन, दर से हुई फरार ।। रात अन्धेरी खुब रही, यह कुदरत का खेल । घुसी विषैला जेल में, की अमृत से मेल ।। विषैला
( अमृत से )
विषैला
बoत० - आपने गम उठाया है मेरे लिये, मेरे खातिर ही दुश्मन जमाना हुआ। आपके साथ मर मिटॅगी सदा, इसलिये आपके पास आना हुआ ।।
अमृत
ब०त० - आपको आना चाहिये यहाँ पर नहीं, बात मानो मेरी जाओ गुन्चेदहन। आपने सर पे जब बाँध ली है कफन, तो मेरे सर पे जानो बँधा है कफन ।।
विषैल
ब०त०-दो दिवानों को डर कुछ नहीं है सनम, मेरे भी दिल में प्यारे कुछ अरमान हैं। एक दिन फैसला हो जायेगा, मार डालूँगी सब जितने शैतान हैं।।
अमृत-ड्रामा-आवो चलो यहाँ से निकल भागें विषैला ! • क्योंकि दुष्ट रन्जीत भी नशे में सो रहा है। इस समय यहाँ से भाग चलना ही अच्छा होगा, क्योंकि मुझे इन दरिन्दों से बदला चुकाना है। विषैला ! माँ भी स्वर्ग चली गई, अब तेरे सिवा मेरा बचा कौन ? बड़े भाई भी जुदा हैं।
( अमृत और विषैला जेल से निकल भागते हैं। बहुत दूर निकल जाने पर अमृत को बहुत जोरों की प्यास लगती है। अमृत नदी की ओर बढ़ता जाता है और पानी पीने की इच्छा करता है तभी जीतेन्द्र फौजी दूर से आवाज लगाता है।)
जीतेन्द्र फौजी-ड्रामा - ( बन्दूक उठाकर) तुम कौन हो ? अपना नाम बताओ नहीं तो मैं तुम्हारे ऊपर गोलियों का वार कर दूँगा । यहाँ देश के जो भी दुश्मन आते हैं, जान भी गँवाते हैं। ( अमृत के न बोलने पर ) बस बस मुझे मालूम हो गया यह दूसरे देश का आदमी है। यह जासूसी शत्रु मालुम पड़ता है।
कवि
ग०- -लेके बन्दूक फौजी जितेन्दर, अमृत पे झट से गोली चलाया। जल में अमृत गिरा है बेचारा,
जाके जीतेन्द्र ने उसको उठाया ।।
जीतेन्द्र फौजी
ब०त० - अब भी कहता हूँ मैं नाम अपना बता, आपसे बस मेरी एक अर्ज है। वरना चैनर में तुमको मैं पिसवाऊँगा, अपना परिचय बता पूछना फर्ज है ।।
अमृत
ब०त०- पहले पानी पिलाओ मुझे इस घड़ी, बाद में अपना परिचय बताऊँगा मैं। मेरे संग की मेरी प्रेमिका छुट गई, याद में उसके सुरधाम जाऊँगा मैं ।।
जीतेन्द्र फौजी
बoत०- यदि तेरी प्रेमिका तुमसे है छुट गई, तो बताओ भला क्या मेरा दोष है। बोलो है किस जगह मैं अभी जा रहा, बस इसी बात का मुझको अफसोस है ।।
जीतेन्द्र फौजी-ड्रामा-या भगवान ! यह तो मुसीबत का मारा हुआ इन्सान मालूम पड़ता है।
मैं इसे अपने टेन्ट के पास ले चलता हूँ और इसकी भुजा से गोली निकलवाऊँगा तथा इसका पूरा पता पूछूंगा।
( इधर जीतेन्द्र फौजी अस्पताल में अमृत को ले जाता हैं और अच्छे ढंग से इलाज करवाता है। फिर जीतेन्द्र अमृत की प्रेमिका विषैला की तलाश में निकलता है। वह एक लड़की को घबराये हुये देखकर।)
जीतेन्द्र फौजी
ब०त० - देवी जी नाम क्या है बता दीजिये, कैसे तुम आ गई इस बियावान में कौन से नगर की रहने वाली हो तुम, कर दो इजहार तू अपने जबान से ।।
विषैला
ब०त० - ठाकुर नटराज की बेटी मैं हूँ सुनो, बाबू जी पूना में है हमारा भवन। मेरे साथी का कोई पता है नहीं, ऐसा लगता है होगा नहीं अब मिलन ।।
जीतेन्द्र फौजी
बoत०- मेरे संग में चलो मैं हूँ रहता जहाँ, तेरे प्रेमी को मैं ढूंढकर लाऊँगा । नाम प्रेमी का अपने बता दो मुझे, चलो अभी साथ में उससे मिलवाऊँगा ।।
विषैला - ड्रामा - ( यह फौजी जवान तो बड़ा नेक मालूम पड़ता है ) बाबूजी ! मेरे प्रेमी का नाम अमृत है। मैं अमृत से प्यार करती हूँ।
जीतेन्द्र फौजी-ड्रामा-अमृत के पिताजी का क्या नाम है ? विषैला-ड्रामा-अमृत ! हमारे पूना शहर के बड़कू किसान का लड़का है। हम दोनों के ऊपर बहुत गम पड़े।
इस वजह से हम दोनों यहाँ भाग आये हैं। अमृत
का कोई भाई फौज में है। भाई की तलाश में ही घर से निकले हैं। (विषैला की बात सुनकर जीतेन्द्र जमीन पर गिर पड़ता है. विषैला उसे उठाते हुये )
विषैला
दो०- बाबूजी क्यों हो गया, तुम्हें बहुत अफसोस । सुनकर मेरी बात को, क्यों हो गये बेहोश।।
जीतेन्द्र फौजी
दो०-क्या बतलाऊँ मैं तुम्हें, किस्मत मेरी अजीब।
अमृत मेरा भाई है, जो कि मेरे करीब ।। चौ०- जो कि मेरे करीब छोड़कर उसे यहाँ हूँ आया। हाय विधाता भाई पे ही मैंने हाथ उठाया ।। मात पिता मर गये किन्तु मैं मुँह भी देख न पाया। 'आशिक बनवारी' आज मुझे क्या तूने खेल दिखाया ।।
दौड़-मैंने किया नादानी है, गम से भरी कहानी है। दीखे मुझे अन्धेरा | चलो विषैला संग मेरे मिलेगा प्रेमी तेरा ।।
विषैला- ड्रामा-कहाँ है अमृत ? क्या अमृत आपका भाई है ? कभी अमृत ने मुझसे कहा था कि मेरा भाई जीतेन्द्र फौज में है, लेकिन मैं उसे नहीं पहचान सकता। अमृत पर हाथ उठाने का कारण बताओ ? जीतेन्द्र फौजी-ड्रामा-अमृत ने पानी पीने की
इच्छा की, मैंने आवाज दिया। उसके न बोलने पर मैंने बन्दूक से गोली चला दिया। वैसे कोई ज्यादा चोट नहीं है, किन्तु बेहोश है। विषैला ! जल्दी चलो।
( सीन बनाइये - विषैला और जीतेन्द्र फौजी चलकर वहाँ पहुँचते हैं जहाँ अमृत लेटा हुआ था। अमृत और विषैला एक दूसरे के गले मिल जाते हैं।)
विषैला
बoत०- होके हम तुम जुदा एक फिर हो गये, कितने हमपे और तुमपे हैं संकट पड़े। आपका भाई भी मिल गया आपको, पैर जाके छुओ देखो वो हैं खड़े ।।
अमृत
बoत०- कैसे खुशियों की बरसात करने लगी, कैसे मालुम मेरा भाई मुझको मिला। मेरा भाई न अब तक दिखाया मुझे, झूठी आशाओं की न तसल्ली दिला ।।
सीन बनाइये – अमृत भइया भइया चिल्लाते हुये जीतेन्द्र से लिपट जाता है।) जीतेन्द्र फौजी- ड्रामा-छोटे भइया ! मैं बड़ा बदनसीब हूँ। आज तेरी सूरत दस साल के बाद देख रहा हूँ। पिता का मुँह भी नहीं देख सका। माँ कहाँ हैं
अमृत । अमृत-ड्रामा - ( रोते हुये ) माँ भी मर गई भइया !
जीतेन्द्र
ब०त० - क्या कहा माता भी चल बसी स्वर्ग
जीतेन्द्र
ब०त० - क्या कहा माता भी चल बसी स्वर्ग को खत्म नामोनिशाँ सारे परिवार का। मैं अभागा किसी का न कुछ कर सका, इसलिये मुँह न देखूँगा संसार का ।।
अमृत
ब०त० - होनी होकर रहे मानती है नहीं, मरना और जीना तो संसार का काम है। धैर्य से काम लो दिल दुखाना नहीं, मौत भी एक दुख का ही पैगाम है।।
जीतेन्द्र फौजी
ब०त० - माफ कर देना अमृत मेरी गल्तियाँ, मैं अंजान में भूल भारी किया। एक अंजान ही जान कर मैं तुम्हें, तेरे ऊपर मैं बन्दूक जारी किया ।।
अमृत
ब०त०–भूल की गल्तियाँ गल्तियाँ हैं नहीं, सबसे अनजान में भूल हो जाती है। काँटे का भी मुकद्दर अगर ठीक है, काँटा भी एक दिन फूल हो जाता है।
जीतेन्द्र फौजी-ड्रामा-या भगवान ! आज मुझे मेरा अमृत मिल गया। अब तो शान से जिन्दगी व्यतीत हो जायेगी । ( अमृत से कहते हुये ) अमृत ड्यूटी तो समुन्द्र के किनारे ही लगाई गई है। हमारा मकान तो कहीं और जगह है। हम तुम दोनों की शादी वहीं कर देंगे। छोटे भइया ! मैंने तो यहाँ पर अपनी शादी कर लिया है।
अमृत - ड्रामा - ( खुशी से ) क्या भइया ! अपनी शादी कर चुके हैं। तब तो बड़ी खुशी की बात है। बड़े • भइया ! मैं अपनी प्यारी भाभी को जरूर देखूँगा ।
( जीतेन्द्र फौजी अमृत और विषैला को अपने मकान में ले जाता है। जीतेन्द्र फौजी इन दोनों को घर पर छोड़कर ड्यूटी चला जाता है। इधर अमृत अपनी भाभी को देखने के लिये जाता है। बिंदिया घूँघट किये बैठी रहती है। अमृत बिना बोले घूँघट खोल देता है।
बिंदिया अमृत को पहचान जाती है और अमृत भी बिंदिया को पहचान जाता है। )
अमृत
ब०त० - घर से मेरे निकल बेहया बेशरम, वर्ना आँखों में गुस्सा उतर आयेगा। जी में आता है कि दाब दूँ मैं गला, तेरा हँसता हुआ दम निकल जायेगा ।।
बिंदिया ( डरते हुये )
बoत० - जो हुआ सो हुआ भूल जाओ उसे, मेरे अच्छे देवर मेरे अच्छे देवर। अपनी करनी का फल मुझको मिल जायेगा, माफ कर दीजिये मैं झुकाती हूँ सर ।।
अमृत
ब०त०- उस समय तूने सर झुकाया नहीं, जबकि गल्ती पे मैं माफी था माँगता। मेरे बापू को मारा बन्दूक से, क्रोध में तन बदन मेरा है काँपता ।।
विदिया
ब०त०-आपके पाँव पड़ती हूँ मैं इस घड़ी, अपने भइया से ये सब बताना नहीं। जान दे दूँगी मैं डूब करके कहीं, क्योंकि मेरा कहीं है ठिकाना नहीं ।।
( अमृत और बिंदिया बातचीत का दौर चलता रहता है तभी जीतेन्द्र फौजी हाँफता हुआ आ जाता है। जीतेन्द्र फौजी के सीने में गोली लगी रहती है। अमृत सीने पे लगी गोली देखकर )
अमृत
ब०त० - हाय भइया मेरे आपको क्या हुआ, कैसे गोली लगी आज सीने में है। उससे बदला चुकाऊँगा मैं अभी, जिन्दगी वरना बेकार जीने में है । ।
जीतेन्द्र फौजी
बoत०-छोटे भइया मैं देखा किसी को नहीं, मेरे पीछे से गोली चलाया है वो । उसको पहचानता भी नहीं शक्ल से, जैसे दुश्मन समझ जुल्म ढाया है वो।। मेरे सीने से गोली निकालो अभी, दर्द से जाँ निकलती चली जा रही। आँख से मेरे कुछ भी दिखाता नहीं, मौत नजदीक ही मेरे अब आ रही ।।
कवि
दो०- दर्दनाक घटना घटी, सुनिये मेरे यार । देख दशा जीतेन्द्र की, बिंदिया हुई फरार ।। मौत का यारों आ गया, बहुत तेज तूफान । एक पल में जीतेन्द्र की, निकल गई है जान ।।
अमृत (रोते हुये )
आसावरी चल बसे छोड़कर मुझको भइया । डूबे मझधार में मेरी नइया ।। टेक ।। अब किसी का नहीं है सहारा। कोई जग में नहीं है हमारा ।।
मर गये पहले ही बाप मइया ।। डूबे०।।
( अमृत और विषैला दोनों मिलकर जीतेन्द्र फौजी का कफन दफन कर देते हैं।
इधर नटराज दरबार में गमगीन होकर बैठा रहता है तभी रन्जीत पहुँचता है।)
दो०- मुख मलीन क्यों आपका, ऐ मेरे सरताज । ना कुछ ही हैं बोलते, दिल का सूना हाल ।।
नटराज
दो०- सभी खुशी में हैं ढले, ढले दिवस में रैन । बिंदिया जब से है मरी, नहीं जिगर को चैन ।।
रन्जीत
ब०त०- बीती बातें जिगर में नहीं लाइये, मरने वाले कभी वापस आते नहीं। इसलिये बिंदिया को भूल जाना ही है, गम बढ़ाने से गम हरगिज जाते नहीं ।।
नटराज
बoत० - दो सुता दोनों मुझसे जुदा हो गई, अब जुदाई जरा भी न होती सहन। इसलिये बिटिया विषैला कहाँ है गई, अपनी करनी पे पछताता है मेरा मन ।।
रन्जीत - ड्रामा - जमींदार साहब ! आप दोनों बेटियों के लिय चिन्ता न करें। चिन्ता करें तो सिर्फ विषैला के लिये, क्योंकि बिंदिया तो मर चुकी है।
नटराज-ड्रामा- किन्तु रन्जीत ! हमें ऐसा लगता है कि बिंदिया अभी जिन्दा है।
( इधर दरबार का काम समाप्त होता है, उधर विषैला अमृत से कहती है ) विषैला-ड्रामा-अमृत ! दुश्मनों के डर से ऐसे कब तक भागते रहेंगे ?
अमृत
ब०त० - मरने जीने की परवाह मुझको नहीं, जबकि सब मर गये मेरे परिवार में। दुश्मनों से अब पीछे हटेंगे नहीं, अब मैं बदला चुकाऊँगा ललकार के ।। आज ही चल रहा हूँ मैं अपने वतन, दुष्ट रन्जीत का मैं निकालूँगा दम। मेरे परिवार को नष्ट जैसे किया, वैसे पहुँचाऊँगा उसको मुल्के अदम।।
विषैला
बoत०- कौन बिंदिया को फेंका है दरियाव में, इसका साबूत कोई मिला ही नहीं। बाबू रन्जीत की बात में आ गये, उनको मालूम नहीं क्या गलत क्या सही ।।
अमृत
बoत०- मुझको साबूत की कुछ जरूरत नहीं, जबकि बिंदिया सलामत है संसार में। इसलिये खौफ मुझको जरा भी नहीं, जब तलक धार है मेरी तलवार में ।।
विषैला
बoत०- कैसे बिंदिया सलामत है संसार में, बात मेरी समझ में कुछ आया नहीं। इस समय बिंदिया होगी कहो किस जगह, उसकी सूरत भी मुझको दिखाया नहीं।। अमृत-ड्रामा- सूरत देखकर क्या करती ?
विषैला- ड्रामा- उससे ये पूँछती कि तुम्हें किसने दरियाव में फेंका था ? तुम्हारे साथ किसने जुल्म किया था ?
अमृत-ड्रामा- सब मालूम हो जायेगा विषैला ! पहले अपने घर तो चलो। हम पापी रन्जीत का खून पी लेंगे और तुम्हारे पिता को भी साबित करवा देंगे कि बिंदिया को किसने दरियाव में फेंका था यह बिंदिया खुद बतायेगी।
( इधर जमींदार नटराज का दरबार लगा हुआ था। तभी वहाँ अमृत और विषैला पहुँच जाते हैं। अमृत भरे दरबार में चिल्लाकर फैसला करता है। फैसले में अमृत की जीत होती है।
रन्जीत का दिल जोर से धड़कता है तभी वहाँ बिंदिया भी भूखी प्यासी दरबार में पहुँच जाती है। बिंदिया को देखकर रन्जीत विंदिया को गोली मारकर वहाँ से भाग जाता है।
बिदिया मरते दम अपने पिता को यह बात बता देती है कि सब रन्जीत की चाल है। बिंदिया हकीकत बात बताकर खत्म हो जाती है।
नटराज लज्जित होकर अमृत का पैर पकड़ लेते हैं और विषैला का हाथ अमृत को दे देते हैं।
दरबार के सब लोग मिलकर धावा करते हैं और दुष्ट रन्जीत को खूब तड़पा-तड़पा कर मारते हैं। बाद में गोली मार देते हैं। दुष्ट रन्जीत खत्म हो जाता है।)
कवि
दो०- कवियों की यह कल्पना होती सदा अनन्त । 'आशिक बनवारी लाल' ने, किया लेखनी बन्द ||
समाप्त
Sir aur kitab dalo
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